Wednesday, September 9, 2020

बुद्ध र बुद्ध दर्शन ( भाग ४)

 


बौद्ध दर्शनको ह्रास

फाहियान (३९९-४१४), सुंग युन (४१८-२१), युवान्-च्वांग, (६२९-४५), इत्सिंग (६७१-९५) व्ही-चू (७२६-२९) र इ-कुंग (७५१-९०)लाई विवरणहरुबाट बौद्ध दर्शनको मध्य एशिया र भारतमा क्रमिक ह्रास भएको देखिन्छ, जस्को अन्य साहित्यिक र पुरातात्विक साक्ष्यबाट पुष्टि हुन्छ। साक्षी छ कि अनेक बौद्ध सूत्रहरुमा सद्धर्मको अवधि ५०० अथवा १००० अथवा १५०० वर्ष भनिएकोछ। कपिलवस्तु श्रावस्ती, गया एवं वैशालीमा ह्रास गुप्त युगमा नै  लक्ष्य ियो । गंधार र उड्डियानमा हूणहरुका कारण सद्धर्मको क्षति भएको मानिन्छ । युवान् च्वांगले पूर्वी दक्षिणापथमा बौद्ध दर्शनलाई लुप्तप्राय देखियो। इ-त्सिंगले आफ्नो समयमा केवल चार संप्रदायहरु भारतमा प्रचारित पा-महासांघिक, स्थविर, मूलसर्वास्तिवादी एवं सम्मतीय। विहारहरुमा हीनयानी र महामानी मिलेको थियो । सिंधमा बौद्ध दर्शन अरब शासनको युगमा क्रमश: क्षीण र लुप्त भयो । गंधार र उड्डियानमा वज्रयान र मंत्रयानको प्रभावबाट बौद्ध दर्शनको आठ शताब्दीमा केहि उज्जीवन ज्ञात हुन्छ तर अलबेरूनीको समयसम्म तुर्की प्रभावबाट त्यो ज्योति बिलाएकोथियो । कश्मीरमा त्यस्को लोप त्यहाँ पनि इसलामको प्रभुत्वको स्थापनाबाटै मान्नुपर्छ । पश्चिमी एवं मध्य भारतमा बौद्ध दर्शन क लोप राजकीय उपेक्षा एवं ब्राह्मण तथा जैन धर्महरुको प्रसारको कारण लाग्छ

मध्यप्रदेशमा गुप्तकालबाट क्रमिक ह्रास देखिन्छ जस्को कारण राजकीय पोषणको अभाव नै लाग्छ । मगध र पूर्व देशमा परम सौगत पाल नरेशहरको छत्रछायामा बौद्ध दर्शन र त्यस्को शिक्षाकेंद्र नालंदा, विक्रमशिला, ओदंतपुरी आफ्नो ख्यातिको चरम शिखरमा पुग्यो स प्रदेशमा सद्धर्मको ह्रास तुर्की विजयको कारण भयो । य स्पष्ट छ कि बौद्ध दर्शनको ह्रासको मुख्य कारण उस्को आफ्नो लौकिक सामाजिक जीवनको अनिवार्य अंङ्ग बन्न नसक्नु थियो स कारणयस्तो लाग्थ्यो कि राजकीय उपेक्षा अथवा विरोधबाट विहारहरुकोके संकटग्रस्त हुनाले उपासकहरुमा सद्धर्म अनायास बिलाएको लाग्थ्यो । य स्मरणीय छ कि उदयनाचार्य अनुसार यस्तो कुनैम्प्रदाय  थिएन कि सांवृत्त भनेर पनि वैदिक क्रियाहरुको अनुष्ठानलाई स्विकार गरेको होस । उपासकहरुको लागि बौद्ध दर्शन केवल शील अथवा यस्तो भक्तिको रूपमाियो जसलाई ब्राह्मण धर्मबाट मूलत: पअल्ग्याउन सक्नु जनताको लागि उतिनै गाह्रो थियो जति शून्यता एवं नैरात्म्यको सिद्धांतोहरुलाई बुझ्नु। कदाचित् आजभोलीको कर्मकाण् डविमुख एवं बुद्धिवादिनी जनताको लागि शील, प्रज्ञा एवं समाधिको धर्म पहिलाको अपेक्षा धेरै उपयुक्त
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Photo: बुद्ध और बौद्ध दर्शन (part-4)

बौद्ध दर्शन का ह्रास

फाहियान (399-414), सुंग युन (418-21), युवान्-च्वांग, (629-45), इत्सिंग (671-95) व्ही-चू (726-29) और इ-कुंग (751-90) के विवरणों से बौद्ध दर्शन के मध्य एशिया और भारत में क्रमिक ह्रास की सूचना मिलती है, जिसकी अन्य साहित्यिक और पुरातात्विक साक्ष्य से पुष्टि होती है। साक्षीय है कि अनेक बौद्ध सूत्रों में सद्धर्म की अवधि 500 अथवा 1000 अथवा 1500 वर्ष बताई गई है। कपिलवस्तु श्रावस्ती, गया एवं वैशाली में ह्रास गुप्त युग में ही लक्ष्य था। गंधार और उड्डियान में हूणों के कारण सद्धर्म की क्षति हुई प्रतीत होती है। युवान् च्वांग ने पूर्वी दक्षिणापथ में बौद्ध दर्शन को लुप्तप्राय देखा। इ-त्सिंग ने अपने समय में केवल चार संप्रदायों को भारत में प्रचारित पाया-महासांघिक, स्थविर, मूलसर्वास्तिवादी एवं सम्मतीय। विहारों में हीनयानी और महामानी मिले जुले थे। सिंध में बौद्ध दर्शन अरब शासन के युग में क्रमश: क्षीण और लुप्त हुआ। गंधार और उड्डियान में वज्रयान और मंत्रयान के प्रभाव से बौद्ध दर्शन का आठवीं शताब्दी में कुछ उज्जीवन ज्ञात होता है किंतु अलबेरूनी के समय तक तुर्की प्रभाव से वह ज्योति लुप्त हो गई थी। कश्मीर में उसका लोप वहाँ भी इसलाम के प्रभुत्व की स्थापना से ही मानना चाहिए। पश्चिमी एवं मध्य भारत में बौद्ध दर्शन का लोप राजकीय उपेक्षा एवं ब्राह्मण तथा जैन धर्मों के प्रसार के कारण प्रतीत होता है। 

मध्यप्रदेश में गुप्तकाल से ही क्रमिक ह्रास देखा जा सकता है जिसका कारण राजकीय पोषण का अभाव ही प्रतीत होता है। मगध और पूर्व देश में परम सौगत पाल नरेशों की छत्रछाया में बौद्ध दर्शन और उसके शिक्षाकेंद्र नालंदा, विक्रमशिला, ओदंतपुरी अपनी ख्याति के चरम शिखर पर पहुँचे। इस प्रदेश में सद्धर्म का ह्रास तुर्की विजय के कारण हुआ। यह स्पष्ट है कि बौद्ध दर्शन के ह्रास का मुख्य कारण उसका अपने को लौकिक सामाजिक जीवन का अनिवार्य अंग न बना सकना था। इस कारण ऐसा प्रतीत होता है कि राजकीय उपेक्षा अथवा विरोध से विहारों के संकटग्रस्त होने पर उपासकों में सद्धर्म अनायास लुप्त होने लगता था। यह स्मरणीय है कि उदयनाचार्य के अनुसार ऐसा कोई संप्रदाय न था कि सांवृत्त कहकर भी वैदिक क्रियाओं के अनुष्ठान को स्वीकार न करता हो। उपासकों के लिए बौद्ध दर्शन केवल शील अथवा ऐसी भक्ति के रूप में था जिसे ब्राह्मण धर्म से मूलत: पृथक् कर सकना जनता के लिए उतना ही कठिन था जितना शून्यता एवं नैरात्म्य के सिद्धांतों को समझ सकना। कदाचित् आजकल की कर्मकाडविमुख एवं बुद्धिवादिनी जनता के लिए शील, प्रज्ञा एवं समाधि का धर्म पहले की अपेक्षा अधिक उपयुक्त हो।
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सन्दर्भ ग्रन्थ

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