(धम्मपद
०१ )
मन सबै
प्रवृत्तिहरुको प्रधान हो । सबै धर्म (राम्रो वा नराम्रो) मनबाटै उत्पन्न हुन्छ ।
यदि कोहि दूषित मनबाट कुनै कर्म गर्छ भने त्यस्को परिणाम दुख नै हुन्छ । दुख उस्को
अनुसरण उसकै प्रकारले गर्छ जसरी गोरुले ताने गाडीको चक्का गोरुको खूरको पछि लाग्छ
।
।। धम्मपद - ०२ ।।
मन सबै
धर्मको प्रधान हो । । पुण्य र पाप सबै धर्म मनबाटै
उत्पन्न हुन्छ । यदि कोहि प्रशन्न मनले केहि भन्छ वा केहि गर्छ भने त्यस्को फल सुख
नै हुन्छ । सुख उस्को पछि त्यसरी छोड्दैन जसरी मान्छेको छायाँले नमरुन्जेल छोड्दैन
(यहाँ धर्मको अर्थ "विचार" हो कृपया गलत अर्थ नलगाउं है) ।
।। धम्मपद - ०३ ।।
उस्ले मलाई पिट्यो, उस्ले मलाई हरायो, उस्ले
मलाई गाली गर्यो, उस्ले मलाई खराब गर्यो - जो यि कुराहरु सम्झिरहन्छ उस्को जीवनबाट वैरको
अन्त हुँदैन ।
।। धम्मपद - ०४ ।।
उस्ले मलाई पिट्यो, उस्ले मलाई गाली गर्यो, उस्ले
मलाई खराब गर्यो - जो यिकुराहरुलाई जीवनमा सम्झिन्न उस्को जीवनबाट वैरको अन्त हुन्छ
।
।। धम्मपद - ०५ ।।
घृणा को अन्त घृणाबाट हुंदैन । घृणाको अंत हुन्छ प्रेम, दया, करुणा
एवं मैत्रीले ।
।। धम्मपद - ०६ ।।
मुर्खहरु बुजदैनन् कि एकदिन संसार छोडेर जानुपर्छ अवश्य जो यि
कुरालाई बुझ्छन् उनको सबै झगडा शान्त हुन्छ ।
।। धम्मपद - ०७ ।।
जो व्यक्ति काम भोगमा लीन रहन्छ, जस्को इन्द्रियहरु उस्को
अधीनमा छैन, जसलाई भोजनको ठीक मात्राको ज्ञान छैन, जो
अल्छीछ र परिश्रम गर्दैन, मार उस्लाई त्यसैगरी पछार्छ जसरी
हावाले सुकेको ठूलै रुखलाई ढलाईदिन्छ ।.
।। धम्मपद - ०८ ।।
जो व्यक्ति काम भोगमा लीन रहँदैन,जस्को इन्द्रियहरु उस्को अधीन छ,जसलाई
भोजनको सही मात्रामा ज्ञान छ, जो अल्छि छैन, मार
उस्लाई त्यसै प्रकार हल्लाउन सक्तैन जसरी हावाले एक चट्टानलाई केहि गर्न सक्तैन ।.
।। धम्मपद - ०९ ।।
जिसने अपने मन को स्वच्छ नहीं किया है और कषाय वस्त्र* धारण करता है, सत्य
और संयम हीन ऐसा व्यक्ति, कषाय-वस्त्र धारण करने का अधिकारी
नहीं** है ।
*कषाय वस्त्र - यहाँ पर प्रतिक है दुनिया में अलग-अलग संप्रदाय में
सन्यासी आदि अलग-अलग वस्त्र धारण करते है और किसी-किसी में वस्त्र धारण भी नहीं
करे है यहाँ पर सभी को गिनना चाहिए ।
** अधिकारी नहीं - आज कल अधिकांश अनधिकारी लोग कषाय वस्त्र* धारण करते
है इस लिए दुनिया में अशांति, इतने सारे झगड़े और अनावश्यक विभाजन
है ।
।। धम्मपद - १० ।।
जिसने अपने मन को स्वच्छ कर दिया है और तब वह कषाय वस्त्र* धारण करता
है, सत्य और संयम युक्त ऐसा व्यक्ति कषाय वस्त्र धारण करने का अधिकारी है.
*कषाय वस्त्र - यहाँ पर प्रतिक है दुनिया में अलग-अलग संप्रदाय में
सन्यासी आदि अलग-अलग वस्त्र धारण करते है और किसी-किसी में वस्त्र धारण भी नहीं
करे है यहाँ पर सभी को गिनना चाहिए
।। धम्मपद - ११ ।।
जो सार को निःसार और निःसार को सार समझता है ऐसे गलत चिंतन वाले
व्यक्ति को सार प्राप्त नहीं होता.
।। धम्मपद - १२ ।।
जो सार को सार और निःसार को निःसार समझता है ऐसे शुद्ध चिंतन वाले
व्यक्ति को सार प्राप्त हो जाता है
।। धम्मपद - १३ ।।
जैसे यदि घर की छत ठीक न हो तो उसमें वर्षा का पानी घुस जाता है, उसी
प्रकार असंयमित मन मे राग घुस जाता है.
।। धम्मपद - १४ ।।
जसरी छाना ठीक नभएकोबाट बर्षाको पानी सजिलै छिर्छ र चुहिन्छ त्यसै सजग
मनबाट राग चुहिंदैन त्यस्तै बलीयो छानाबाट पानी चुहन सक्दैन, त्यस्तै
गरेर संयमित मनमा राग चुहुन सक्दैन ।
।। धम्मपद - १५ ।।
त्यो लोकमा शोक गर्छ तथा मरणोपरान्त परलोकमा पनि शोक गर्छ । पापी दुबै
ठाउंमा शोक गर्छ । उ आफनो कर्महरको पाप फललाई देखेर शोकग्रस्त तथा पीड़ित हुन्छ ।
वह इस लोक में प्रसन्न होता है तथा मरणोपरान्त परलोक में प्रसन्न होता
है. पुण्य करने वाला व्यक्ति दोनों जगह प्रसन्न होता है. वह अपने कर्मों का पवित्र
फल देखकर मुदित होता है, आनन्दित होता है.
।। धम्मपद - १७ ।।
पापी इस लोक में संतप्त होता है तथा प्राणान्त के बाद परलोक में भी
संतप्त होता है. इस प्रकार पाप करने वाला दोनों जगह ही संतप्त होता है. 'मेंने
पाप किया है' यह सोचकर संतप्त होता है और दुर्गति प्राप्त कर और भी अधिक संतप्त होता
है.
।। धम्मपद - १८ ।।
पुण्य करने वाला इस लोक में आनन्दित होता है तथा प्राणान्त के बाद
परलोक में भी आनन्दित होता है. इस प्रकार पुण्य करने वाला दोनों ही जगह आनन्दित
होता है. "मैंने पुण्य किया है" यह सोचकर आनन्दित होता है और सद्गति
प्राप्त कर और भी अधिक आनन्दित होता है.
।। धम्मपद - १९ ।।
ग्रन्थहरुलाई थोरै पाठ गरोस तर राग, द्वेष तथा मोह रहित भएर धर्म अनुसार गरोस
तब यस्तो बुद्धिमान, अनासक्त तथा भोगको पछि नदगुर्ने व्यक्ति श्रमणत्वको अधिकारी हुन्छ ।
ग्रंथहरुलाई जतिनै पाठ गरोस तर प्रमादको कारण त्यस धर्म-ग्रंथहरुको
अनुसार आचरण नगरी अरुको गाई गिन्ने जस्तै उ श्रमणत्वको अधिकारी हुंदैन ।
*धर्म-ग्रंथहरुको अर्थ हो जसबाट हामीलाई सत्यको ज्ञान मिलोस, हाम्रो
मनमा ढाकिएको अज्ञान टाढीयोस र हामीलाई विवेकको प्राप्ति होस त्यसलाई धर्म-ग्रंथ
भनिन्छ ।
।। धम्मपद - २० ।।
* धर्मको अर्थ हो जो हाम्रो कर्त्तव्य हो त्यस्को पालन गर्नु र असल तथा
श्रेष्ठ गुणहरुको धारण गर्नु ।. उदाहरण. सत्य बोल्नु, यथा
योग्य अहिंसाको पालन गर्नु, प्रेम राख्नु, जहाँ सम्महोस
अरुलाई अनावश्यक दुख न दिनु इत्यादि.
** श्रमणत्वको लागि मसित शब्द छैन किनकि यो एक अनुभूत हो ।
हाँ में थोड़ा बहुत बताने की कोशिस करता हू
प्राचीन भारत में जब हमारे पास बहुत सभ्य और महान संस्कृति साकार रूप
में थी तब ज्ञान प्राप्त की दो शाखा थी ०१. सांख्य विधा और ०२. योग विधा जिसको
क्रमशः ब्रह्म संस्कृति और श्रमण संस्कृति कहते है
यहाँ श्रमणत्व शब्द श्रमण संस्कृति(योग विधा) से सम्बन्ध रखता है.
।। धम्मपद - २१ ।।
अप्रमाद अमृत (निर्वाण या केवली) का पद है और प्रमाद मृत्यु का पद ।
अप्रमादी मरते नहीं और प्रमादी मनुष्य तो मरे - सामान होते हैं ।
।। धम्मपद - २२ ।।
ज्ञानी पुरुष अप्रमाद की इस विशेषता को जान, आर्यों*
के आचरण में रत रहकर,
ऐसे पंडित जन अप्रमाद में आनन्दित रहते हैं
*आर्यों - बौद्ध दर्शन, जैन दर्शन और वैदिक दर्शन में आर्य
शब्द बहुधा प्रयोग मिलता है, यहाँ तक बौद्ध दर्शन में तो आर्य
शब्द मंत्र में भी प्रयोग करते और बौद्ध दर्शन में चार परम सत्य को भी आर्य सत्य
से संबोदित किया गया.
यहाँ आर्य शब्द का यथार्थ अर्थ है जो श्रेष्ठ आचरण वाला, विवेकी, धार्मिक, ज्ञान
में रत रहने वाला, सत्यवादी व्यक्ति, अच्छे कार्यों में करने में वीर, अहिंसक, प्रेम
से व्यवहार करे वाला और जीवन में जो श्रेष्ठता का चयन करता है
कृपया यहाँ आर्य शब्द न किसी समूह, न जाति, न
वर्ण, न लोगो के लिए नहीं है और जो लोग यह शब्द प्रयोग करते है उनमे ऊपर लिखे
गुण नहीं है वह आर्य नहीं है
----------
इस लिए भगवान बुद्ध कहते
ज्ञानी पुरुष अप्रमाद (अमृत - निर्वाण या केवली का पद है और अप्रमादी
मरते नहीं) की इस विशेषता को जान, आर्यों के आचरण में रत रहकर, ऐसे
पंडित जन अप्रमाद में आनन्दित रहते हैं
।। धम्मपद - २३ ।।
ते झायिनो साततिका, निच्चं दऴहपरक्कमा ।
फुसन्ति धीरा निब्बाणं, योगक्खेमं अनुत्तरं ।।
ऐसे सतत ध्यान करने वाले, सजग, सदैव दृढ़ पराक्रम में लगे धीर पुरुष
उतकृष्ट योग-क्षेम वाले निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं ।
।। धम्मपद - २४ ।।
उद्योगशील,
जागरुक, पवित्र कर्म करने वाले, सोच-विचार
कर काम करने वाले संयमी, धर्म* के अनुसार जीविका चलाने वाले
अप्रमादी व्यक्ति का यश खूब बढ़ता है
*यहाँ धर्म का अर्थ है जो उसकी योग्यता और बुद्धि के अनुसार कार्य
निश्चित किया गया है वह धर्म और जब वह अपनी योग्यता और बुद्धि को और बढ़ावे तब
उसका उसका धर्म दूसरा हो जाता है(इसकी बात की प्राचीन काल में परीक्षा होती थी की
उसका कोन सा धर्म है)
।। धम्मपद - २५ ।।
बुद्धिमान व्यक्ति उद्योग, अप्रमाद, संयम
और इन्द्रियों के दमन* द्वारा अपने लिए ऐसे द्वीप बना ले जिसे बाढ़ डूबा न सके
अर्थात
इन्सान को चाहिए को वह उत्साहित होकर अप्रमाद, संयम
और दम से अपने आप को ऊपर उठा ले जिसको किसी प्रकार की बाढ़ प्रभावित न कर सके. इस
प्रकार मेधावी पुरुष को उद्योग, अप्रमाद, संयम
एवं दम द्वारा एक ऐसा द्वीप बना लेना चाहिए जिसे बाढ़ डुबो नहीं सके.
*दमन कर अर्थ यहाँ दबाना नहीं है बल्कि विकेक(सत्य और असत्य को समझने
का ज्ञान) शक्ति के द्वारा जीतना है
।। धम्मपद - २६ ।।
जब रक्त-संस्कृति पर आर्य-संस्कृति की विजय हुई उस प्रतिक के रूप में
आज का त्यौहार श्री विजयादशमी की शुभ कामना और आज का धम्मपद का पवित्र सन्देश
।।
मुर्ख एवं दुर्बुद्धि लोग प्रमाद में लगे रहेते हैं । उसके विपरीत
बुद्धिमान व्यक्ति श्रेष्ठ धन की तरह अप्रमाद की रक्षा करता है ।
।। धम्मपद - २७ ।।
न तो प्रमाद करो और न काम भोगों में लिप्त होवो । प्रमाद- रहित हो
ध्यान करने से अपूर्व सुख (निर्वाण) की प्राप्ति होती है ।
अर्थात्
"(मुर्ख एवं दुर्बुद्धि लोग प्रमाद में लगे रहेते हैं) मूर्खों और
प्रमादियों का काम ही ऐसा होता है । इसके विपरीत ज्ञानी पुरुष अप्रमाद की रक्षा
गाढ़ी सम्पत्ति के सामान करते हैं और ऐसा करके वे अमृतमय महानिर्वाण सम्पत्ति
प्राप्त कर लेते हैं ।"
।। धम्मपद - २८ ।।
जब कोई बुद्धिमान जन अप्रमाद को प्रमाद से धकेल देता है, अर्थात्
जीत लेता है, तो प्रज्ञा-रूपी प्रसाद(महल) पर चढ़ा हुआ शोकरहित वह धीर व्यक्ति शोक
ग्रस्त मुर्ख जनों को करुण भाव से उसी तरह देखता है, जैसे पर्वत पर खड़ा हुआ आदमी धरती पर
खड़े लोगों को देखता है ।
*नोंध - यही बात महर्षि पतंजलि रचित योग-दर्शन के व्यास भाष्य में भी
आई है और यही बात जैन ग्रंथो में भी आई है कुछ अलग दंग से वहां तीर्थंकर और
सामान्य व्यक्ति के भेद में क्या अंतर है उस प्रश्न के उत्तर में
।। धम्मपद - २९ ।।
प्रमाद करने वालें में अप्रमादी, अज्ञान की नींद में सोते रहने वाले
लोगों को प्रज्ञावान,
अतिसचेत, जागरुक बुद्धिमान व्यक्ति पीछे
छोड़कर वैसे ही निकल जाता है जैसे शक्तिशाली तेज दौड़ने वाला घोड़ा दुर्बल घोड़े को
पीछे छोड़कर निकल जाता है
।। धम्मपद - ३० ।।
अप्रमाद के कारण ही इन्द्र देवताओं में श्रेष्ठ बना । पंडित* जन सदैव
अप्रमाद की प्रशंसा करते हैं और प्रमाद की सदैव निंदा होती है
*यहाँ पंडित का अर्थ बुद्धिमान है. न की जन्म से ब्राहमण है या संस्कृत
आदि पढ़ा हुआ.
।। धम्मपद - ३१ ।।
जो साधक अप्रमाद(सत्य, अहिंसा, प्रेम, दया
इत्यादि श्रेष्ठ गुण) में रत रहता है या प्रमाद(असत्य, हिंसा, नफ़रत, इत्यादि
दुर्गुण) में भय देखता है, वह अपने छोटे-बड़े सभी
कर्म-संस्कारों के बंधनों को आग की तरह जलाते हुए चलता है ।
।। धम्मपद - ३२ ।।
जो भिक्षु,
मुनि या सन्यासी अप्रमादी है (सत्य, अहिंसा, प्रेम, दया, पुरुषार्थ
इत्यादि श्रेष्ठ गुण) है, प्रमाद(असत्य, हिंसा, नफ़रत, आलस्य
इत्यादि दुर्गुण) से भयभीत होता है उसका पतन नहीं होता है । वह तो निर्वाण (मुक्ति, मोक्ष
या केवली) के निकट पहुँचा हुआ होता है ।
धम्मपद ३३ ।।
यो चित्त चंचल छ, चपल छ, कठिनाईबाट
यस्को संरक्षण हुन्छ र कठिनाईबाट यस्को निवारण(नियन्त्रणामा आउँछ) हुन्छ । मेधावी
पुरुष यसलाई त्यसै प्रकार सीधा गर्छ जसरी बाण बनाउनेले बाणलाई ।
।। चित्त वर्ग (मन की माया) - * यही बात श्रीमद् भगवत् गीता में बड़ी
सुन्दर तरीके से प्रस्तुत की गई है और उपनिषद् में भी काव्य की तरह वर्णित की गई
है और जैन ग्रंथो और योग-दर्शन में अलग-अलग चित्त की अवस्था में यह चंचल भी एक
स्थित बताई गई है ।
धम्मपद ३४ ।।
जैसे तालाब से निकालकर जमीं पर फेंकी गई मछली तड़फड़ाती है उसी प्रकार
यह चित्त भी मार* के फंदे से निकालने के लिए तड़फड़ाता है ।
।। चित्त वर्ग (मन की माया) -
*यहाँ मार का अर्थ बुराई, वासना, दुख, क्लेश, बुरी आदते, बुरे
संस्कार, मन की अशांति, शरीर के दुख आदि है
स्पष्टीकरण - हमें दिखता है बुरे व्यक्ति सुखी है लेकिन सत्य में वह
महा-अज्ञान और अधंकार में फंसे हुआ है । उसको नहीं मालूम वहा क्या कर रहे है ।
क्यों की उसको दिखता बुरे काम का फल के रूप के धन-दोलत, सम्पति, एश्वर्य
उसे फ़ौरन मिलता है और अच्छे काम करने वाले दुखी है । लेकिन उसके मन में शांति और
प्रेम नहीं होने से वह बहुत दुखी है और वह बिना पानी की मच्छली की तरह अपने जीवन
में अपनी बुराई से तड़पते रहते है लेकिन अज्ञान और अविद्या भारी होने से मुक्त
नहीं हो पाते है ।
धम्मपद ३५ ।।
कठिनाई से दमन किया जा सकने वाले, शीघ्रगामी, जहाँ
चाहे वहाँ चले जाने वाले चित्त का दमन* करना अच्छा है । दमन* किया गया चित्त सुख
देने वाला होता है ।
।। चित्त वर्ग (मन की माया) - *यहाँ दमन का अर्थ जबरदस्ती दबाना नहीं
है जो आज कल हर संप्रदाय में किया जाता है । यहाँ दमन तब होगा जब विवेक-अविकेक, सत्य-असत्य, ज्ञान-अज्ञान
आदि का यथार्थ समझ होगी तो ही हम मन में उठाने वाली विकृत का रोक सकते है । और यही
बात गीता में भी आई है और वेदों में भी आई है ।
इसलिए - कठिनाई से रुकने वाला चित्त, शीघ्रगामी यानि बहुत गति शील चित्त, जहाँ
चाहे वहाँ चले जाने वाले चित्त का संयम करना अच्छा है । संयम किया गया चित्त(मन)
सुख देने वाला होता है ।
।। चित्त वर्ग (मन की माया) - धम्मपद ३६ ।।
बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए की दुष्कर दिखाई देने वाले, अत्यन्त
चतुर, जहाँ चाहे वहाँ चले जाने वाले चित्त की रक्षा करे । सुरक्षित चित्त
बहुत ही सुखदायी होता है ।
।। चित्त वर्ग (मन की माया) - धम्मपद ३७ ।।
जो व्यक्ति (पुरुष, स्त्री, गृहस्थ
अथवा प्रव्रजित) दूर-दूर तक जाने वाले, निराकार, गुहा
आश्रित चित्त का संयम कर लेगा, वह मार के बंधन से मुक्त हो जाएगा ।
स्पष्टीकरण - जो मन बहुत दुष्कर है, जो मन बहुत चालाक और चतुर है, जो मन
जहाँ चाहे वहाँ चला जाता है, जो बहुत दूर-दूर तक जानेवाला है, जो मन
का कोई निश्चित कोई आकार नहीं है, जो मन हमेशा और हर क्षण बदलता रहा है, जो मन
गुफा की तरह रहस्य से युक्त है और रहस्यों से भरा हुआ है । उस मन(चित्त) को कोई भी
व्यक्ति ज्ञान, विवेक और ध्यान से संयम कर लेता है वह मार यानि बुराई, वासना, दुख, क्लेश, बुरी
आदते, बुरे संस्कार, मन की अशांति, शरीर
के दुख आदि से मुक्त हो जाएगा ।
धम्मपद ३८ ।।
इस शरीर को घड़े के सामान नश्वर जान और चित्त को नगर के सामान (मजबूत और
दृढ़) बना प्रज्ञारूपी हथियार लेकर मार के साथ युद्ध करे । उसे जित लेने पर भी
चित्त की रक्षा करे और अनासक्त बना रहे ।
जिसका चित्त स्थिर नहीं, जो सद्धर्म(सत्य+धर्म) को नहीं जनता, जिसकी
श्रद्धा डोलती है उसकी प्रज्ञा(ज्ञान) परिपूर्ण नहीं कही जा सकती
।। चित्त वर्ग (मन की माया) -
स्पष्टीकरण - जिसका मन(चित्त) हर समय बदलता रहता है और कोई भी कार्य या
विचार स्थिर मन(चित्त) से नहीं कर पाता है या सोच नहीं सकता है । जो व्यक्ति सत्य धर्म* को नहीं जान है और जो सत्य धर्म के
जानने की भी इच्छा भी नहीं करता है । इसलिए उसके मन में कभी भी श्रद्धा(सत्य के
प्रीति) पैदा नहीं होती, इसलिए हमेशा उसकी श्रद्धा(सत्य के
प्रीति) डोलती रहती है । कभी ये करू कभी वह करू वह कोई भी कोई निश्चित होकर कोई
निर्णय नहीं ले पता है, इसलिए उसको कभी भी परम शांति या परम
सत्य के दर्शन नहीं हो सकते है ।
वह जीवन भर भटकता रहता है, दुखी रहता है और दुखी होकर
मृत्यु का निवाला बनता जाता है और पशु जीवन को पाता है ।
*सत्य धर्म - * धर्म का अर्थ है जो हमारे कर्त्तव्य है उसका पालन करना
और अच्छे तथा श्रेष्ठ गुणों का धारण करना. उदा. सत्य बोलना, यथा
योग्य अहिंसा का पालन करना, प्रेम रखना, जहाँ
तक बने दूसरों को अनावश्यक दुख न देना इत्यादि. ।
यदि सत्य धर्म को जाने के लिए पुस्तकें सहायक करे तो स्वागत करना चाहिए
और यदि लेकिन पुस्तकें हमें गलत रास्ते या हमारी बुद्धि में भ्रम-अज्ञान की ओर
लेकर चले तो उस उस पुस्तकें या विचार को छोड़कर हमें खुद विवेक बुद्धि से निर्णय
लेना चाहिए और जीवन के रास्ते पर आगे बढ़ाना चाहिए यह मेरा विचार है ।
धम्मपद ३९ ।।
जिसके चित्त में राग नहीं है, जिसका चित्त द्वेष रहित है, जो
पाप-पुण्य से परे उठ गया है ऐसे सावधान, जाग्रत व्यक्ति को कोई भय नहीं है ।
।। चित्त वर्ग (मन की माया) -
धम्मपद ४० ।।
।। चित्त वर्ग (मन की माया) -
नोंध - यह बहुत सुन्दर वाक्य
है इसी वाक्य का दुसर रूप योग दर्शन में मन की भूमि और समाधी रुप मे आया है साथ में जैन ग्रंथों में भी मन की अवस्था के
रूप में वर्णन किया है ।
स्पष्टीकरण - जो व्यक्ति मन को समझने और काबू करेने की साधना कर रहा है
उनके लिए बहुत उपयोगी और प्रेरण देता है ।
भगवान बुद्ध कह रहे है जो साधक परम शांति को पाना चाहता है, वह इस
शरीर को मिटी के घड़े के सामान नाशवान समझे साथ में मन(चित्त) को नगर यानि शहर और
शहर की व्यवस्था के सामान मजबूत और दृढ़ बनाये और प्रज्ञारूपी रूपी हथियार से
अर्थात विवेक-बुद्धि से मार यानि बुराई, वासना, दुख, क्लेश, बुरी आदते, बुरे
संस्कार, मन की अशांति, शरीर के दुख आदि के साथ युद्ध करे और
निश्चित विजय होवे ।
और विजय होने के बाद भी मन(चित्त) की रक्षा करे और अनासक्त बना कर जीवन
जीवे और आनंदित रहे ।
धम्मपद ४१ ।।
अहो ! यह तुच्छ शरीर शीघ्र ही चेतनाहीन हो कर निरर्थक काठ(लकड़ी) की तरह
धरती पर पड़ा रहेगा ।
।। चित्त वर्ग (मन की माया) -
शरीर का अन्त(मृत्यु) निश्चित है ।
धम्मपद ४२ ।।
जितनी हानि शत्रु-शत्रु की या वैरी-वैरी की कर सकता है, उससे
कहीं अधिक हानि बुरे(गलत) मार्ग पर लगा हुआ चित्त(मन) कर सकता है ।
।। चित्त वर्ग (मन की माया) -
इसलिए मन को सही मार्ग पर चलाना मुख्य लक्ष्य होना चाहिए ।
धम्मपद ४३ ।।
जितना भलाई माता-पिता या दुसरे भाई-बंधु नहीं कर सकते, उससे
कहीं अधिक भलाई सन्मार्ग(सत्य और अच्छे मार्ग) पर लगा हुआ चित्त करता है ।
।। चित्त वर्ग (मन की माया) -
धम्मपद ४४ ।।
मित्र वर्ग - आज के पवित्र धनतेरस के दिन पर धम्मपद का पुष्प वर्ग चालू
हुआ और चित्त वर्ग पूर्ण हुआ जहाँ मन के अनेक(अच्छे और बुरे) पहलू के विषय में
चर्चा हुई । अभी हम जीवन के सुन्दर और सुगन्धित पुष्प(पहलू) वर्ग पर चर्चा करेंगे
। जो सही मायेने में हमारे जीवन का धन है ।
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कौन है जो इस पृथ्वी और देवतोओं सहित यम लोक को जीत सकेगा ? कौन
चतुर व्यक्ति अच्छी तरह से उपदिष्ट धर्म(परम सत्य) के पद को फुल को भाँति चुन
सकेगा ?
।। पुष्प वर्ग (पुण्य पुष्प का बगीचा उगाएं) -
स्पष्टीकरण - एक मालाकार सही
फूलों को चुनता है और फिर उन्हें तोड़कर एक अच्छी माला बनता है । उसी प्रकार जीवन
के सत्य को जानने के लिए कौन प्रयत्न करेगा ? संसार में जीवन के सही रहस्य को कौन
खोज पायेगा ? स्वर्ग और पाताल की जानकारी किसे प्राप्त हो सकेगी ? जैसे
एक मालाकार सुन्दर-सुन्दर फूलों को पहचान लेता है और फिर उससे एक सुन्दर माला बना
देता है उसी प्रकार धर्म(परम सत्य) के गूढ़ सिद्धातों को एक मालाकार की तरह कौन
समझ पायेगा ?
धम्मपद ४५ ।।
शैक्ष्य (निर्वाण की खोज में लगा हुआ व्यक्ति) ही देवताओं सहित इस
यमलोक और धरती को जीतेगा. चतुर शैक्ष्य ही अच्छी तरह से उपदिष्ट धर्म(सत्य) के
पदों का पुष्प की भाँति चयन करेगा ।
।। पुष्प वर्ग (पुण्य पुष्प का बगीचा उगाएं) - जो आत्मज्ञान का चयन
करेगा, जानेगा, समझेगा, साक्षात्कार करेगा अर्थात् कुशल साधक ही धर्मपदों(सत्य वचन) का भली
भाँति चयन कर पायेगा । जैसे कोई माली बागीचे में जाकर अभी नहीं खिले हुए, कीड़ों
द्वारा खाये हुए, सूखे तथा गाँठ बने फूलों को छोड़ देता है और उनकी जगह सुन्दर, सुगन्धित
फूलों को चुन लेता है उसी प्रकार शैक्ष्य (साधक) बुद्धों (जिन होने परम ज्ञान
प्राप्त कर लिये है वह) द्वारा सुकथित, बोधिपक्षीय धर्म पदों का प्रज्ञा
द्वारा चयन करेगा, समझेगा तथा साक्षात्कार करेगा । इस प्रकार एक सच्चा साधक ही यमलोक, स्वर्ग-लोक
और धरती-लोक के विषय में ठीक-ठीक समझ सकेगा ।
धम्मपद ४६ ।।
इस शरीर को झाग के सामान या मरू मरीचिका(रेगिस्थान की रेत जहाँ पानी
होने का भ्रम होता है) के सामान जानकर, मार(अविद्या और अज्ञान आदि) को तोड़
यमराज(मृत्यु के राजा) की दृष्टि से दूर रहे ।
।। पुष्प वर्ग (पुण्य पुष्प का बगीचा उगाएं) -
स्पष्टीकरण - जो व्यक्ति यह समझ जाता है की यह जीवन मरीचिका(रेगिस्थान
की रेत जहा पानी का भ्रम होता है) के सामान है या यह शरीर झाग के बुलबुले के सामान
है वह जीवन के सत्य को समझ जाता है । वह मार(अविद्या और अज्ञान आदि) के फूल के
बाणों को तोड़ देता है . उसे मृत्यु के सम्राट का कभी दर्शन नहीं होता ।
धम्मपद ४७ ।।
काम, भोग रूपी पुष्पों(स्थाई जीवन) को चुनने वाले, आसक्ति
में डूबे हुए मनुष्य को मृत्यु वैसे ही बहा ले जाती है जैसे सोये हुए गाँव को नदी
की बढ़ी हुई बाढ़ ले जाती है ।
।। पुष्प वर्ग (पुण्य पुष्प का बगीचा उगाएं) - स्पष्टीकरण - जो लोग
पुरे जीवन कामभोग रूपी फूल चुनते रहते हैं । ऐसे लोंगों का अंत वैसे ही हो जाता है
जैसे सोये हुए गाँव को नदी की बढ़ी हुई बाढ़ ले जाती है ।
धम्मपद ४८ ।।
काम भोग रूपी पुष्प(जीवन) चुनने वाले, आसक्ति में डूबे मनुष्य को, जो
अभी तक कामनाओं(ईच्छा) से तृप्त नहीं हुआ है, यमराज(मृत्यु) अपने वश में कर लेता
है ।
।। पुष्प वर्ग (पुण्य पुष्प का बगीचा उगाएं) - स्पष्टीकरण - मनुष्य
जीवन की अवधि बहुत ही छोटी है । इसी कारण सांसारिक विषयों में लिप्त इन्सान को जब
मृत्यु पकड़कर ले जाती है तो वह रोता, कलापता रहता है ।
धम्मपद ४९ ।।
जैसे भँवरा किसी भी पुष्प को बिना हानि पहुँचाये रस पीकर चल देता है, उसी
प्रकार भिक्षु, मुनि, सन्यासी आदि को भी भिक्षाटन करनी चाहिए ।
।। पुष्प वर्ग (पुण्य पुष्प का बगीचा उगाएं) - भारतीय समाज जो भिक्षु, मुनि, सन्यासी
आदि को विशेष सन्मान दिया जाता है उन के लिए धम्मपद का आदेश है ----
स्पष्टीकरण - भिक्षु, मुनि, सन्यासी आदि को लोगों के अन्दर सत्य
और ज्ञान के प्रति श्रद्धा बढ़ने के लिए प्रयत्न करना चाहिए और प्रेरणा करनी चाहिए
। न की आज की तरह विवाद या झगडा, पाखंड, अंध-विश्वास, छल-कपट, अवैज्ञानिक
बाते आदि बाते करने के लिए नहीं । भंवरे की तरह अर्थात् सबसे थोड़ी-थोड़ी भिक्षाटन
करनी चाहिए । भिक्षु,
मुनि, सन्यासी आदि को बिना किसी भेद-भाव
अर्थात् जात-पात, सम्प्रदाय या जाति विशेष के नाम से भिक्षा ग्रहण नहीं करनी चाहिए ।
और जो भिक्षु-मुनि-सन्यासी आदि भेद-भाव, असत्य, अज्ञान, विवाद, झगडा, पाखंड, अंध-विश्वास, छल-कपट, अवैज्ञानिक
बाते आदि का प्रचार करता है । उन को कुछ नहीं देना चाहिए और यथा योग्य सजा देनी
चाहिए यह मेरी राय है ।
धम्मपद ५० ।।
मनुष्य को चाहिए कि वह न तो दूसरों के दोष देखे और न दूसरों के
कृत-अकृत* पर ध्यान दे । उसे चाहिए कि वह अपने ही कृत-अकृत को देखे ।
।। पुष्प वर्ग (पुण्य पुष्प का बगीचा उगाएं) -
धर्म(अपने कर्तव्य) के विपरीत बातों में चित्त को रमने नहीं देना चाहिए
। ऐसी बातों से मन हटाकर केवल अपने करने योग्य कार्यों पर ध्यान देना चाहिए ।
*कृत-अकृत का अर्थ यहाँ पर धम्मपद कहना चाहते है कि प्रायः हमारा जीवन
दूसरों ने क्या किया,
क्या नहीं किया, उसने वह गलत किया, वह
वहां गया था, उसने वह बोलो, वह क्यों बोला आदि बे-तुकी बात पर
पूरा हो जाता है और हम अपना कार्य ठीक से पूरा नहीं कर पाते और या पूरा नहीं करने
का बहाना खोजते है इसलिए फालतू बात को छोड़ कर अपने काम पर ध्यान देना चाहिए
।
धम्मपद ५१ ।।
जैसे फूल सुन्दर हो, पर वह गंध रहित हो उसी प्रकार कहे
अनुसार कार्य न करने वाले की सुभाषित वाणी निष्फल होती है ।
।। पुष्प वर्ग (पुण्य पुष्प का बगीचा उगाएं) -
यहाँ पर कहना कहते है हम अच्छा-अच्छा बोलते है लेकिन हमारे जीवन में हम
जो बोलते है उसका आचरण नहीं है तो हमारे बोलना बेकार है और उसका कोई परिणाम नहीं
आता है और वह शब्द व्यर्थ है ।
(मेरी
निजी राय किसकी पर कटाक्ष नहीं है - इसलिए हम भारतीय या धर्म(संप्रदाय) के नाम पर
चलने वाले लोगों का जीवन नरक के तुल्य हो गया है हम बड़ी बड़ी अच्छी बाते करते है
लेकिन आचरण में वह पूरी शुद्धता नहीं है चाहे नेता हो, धर्म-गुरु
हो, माता-पिता हो, शिक्षक हो, समाज
सुधारक हो, NGO हो, सरकार हो,
लोग हो, युवा वर्ग हो, चाहे
कोई भी हो कही भी जीवन में शांति, सुख और प्रेम नजर में नहीं आ रहा है
और भविष्य में भी दिख नहीं रहा है)
-इसलिए
हम जो सुभाषित वाणी बोले उसके अनुसार कार्य करे और अपने जीवन को और दुसरे के जीवन
को सुखी, शांति और प्रेम से युक्त बनाये ।
धम्मपद ५२ ।।
जैसे फूल सुन्दर हो और उसमें (सू)गंध भी हो, उसी
प्रकार कहे अनुसार कार्य करने वाले की सुभाषित वाणी सफल होती है ।
।। पुष्प वर्ग (पुण्य पुष्प का बगीचा उगाएं) -
स्पष्टीकरण - जो इन्सान चाहता है की सब लोग उसकी बाते सुने और उसका
आचरण करे, तो उसको प्रथम अपने जीवन में वह सत्य आचरण लाना होगा फिर उसकी सुभाषित
वाणी सफल होगी और फिर समाज में अहिंसा, शांति और प्रेम का प्रचार होगा ।
धम्मपद ५३ ।।
जिस तरह कई फूलों के ढेर से फूल चुनकर मालायें गूँथ लेता है, उसी
प्रकार संसार में उत्पन्न हुए प्राणी को चाहिए की वह बहुत सारे शुभ कर्म करे ।
।। पुष्प वर्ग (पुण्य पुष्प का बगीचा उगाएं) -
स्पष्टीकरण - इन्सान : शुभ कर्म कर क्यों की जीवन छोटा है ।
व्यक्ति को जीवन में सदैव कुशल कर्म करते रहना चाहिए । एक कुशलकर्मी
अपने सद्कर्मों से अपना यह लोक और परलोक दोनों ही सुधार लेता है । अतः इन्सान को
सदा अच्छे कर्म करने पर जोर देना चाहिए । अगर फूलों का ढेर रखा हो परन्तु माली
कुशल न हो तो वह अच्छी माला नहीं बना सकता । लेकिन अगर माली चतुर हो तो वह अच्छी
माला बना लेगा ।
तर्क :- मनुष्य के साथ भी यही होता है । अगर उसमें कुशलता(होशियारी और
शक्ति) व्यक्ति के मूल में है पर श्रद्धा(सत्य के प्रति विश्वास और विवेक) की कमी
है तो वह बहुत अच्छे कर्मों को करने की इच्छा नहीं करेगा । दूसरी ओर अगर व्यक्ति
में कुशलता(होशियारी और शक्ति) की कमी हो और श्रद्धा(सत्य के प्रति विश्वास और
विवेक) भी कम हो तो निश्चित ही वह अच्छे कर्मों को करने में सक्षम नहीं है । इसके
विपरीत उसमें कुशलता(होशियारी और शक्ति) व्यक्ति के मूल में अधिक है और श्रद्धा(सत्य
के प्रति विश्वास और विवेक) भी अधिक मात्र में हो तो निश्चित वही बहुत ही अधिक
अच्छे कर्मों को कर सकता है ।
निर्णय :- जैसे अच्छे कर्म कर्म करने में और एक सुन्दर माला बनाने में
समानता है । अच्छे फूल चुनने का तात्पर्य अच्छे कर्म करना है । जैसे माली के सुन्दर
फूलों की माला की खुशबू दूर-दूर तक जाती है वैसे ही इन्सान के कर्म ऐसे होने चाहिए
की उसके सद्कर्मों की सुगंध दूर-दूर तक लोगों को पहुचे ।
धम्मपद ५४ ।।
जागने वाले के लिए रात एक न कटने वाली रात हो जाती है । थके हुए आदमी
के लिए एक योजन का मार्ग भी बहुत लम्बा हो जाता है । उसकी प्रकार सद्धर्म* न जानने
वालों के लिए संसार का चक्र लम्बा हो जाता है ।
फूलों, चन्दन, तगर, या जूही किसी की भी गन्ध उल्टी हवा में नहीं जाती किन्तु सज्जनों की
सुगन्ध हवा की विपरीत दिशा में जाती है । सद्पुरुष सभी दिशाओं में सुगन्ध फैलता है
।
।। पुष्प वर्ग (पुण्य पुष्प का बगीचा उगाएं) -
स्पष्टीकरण - शास्ता ने तीन प्रकार की गन्ध की चर्चा की है :- ०१.
मुलगंध ०२. सारगंध एवं ०३. पुष्पगंध लेकिन शास्ता ने तीनों गन्धों से परे भी एक
गन्ध है जिसे शीलगन्ध कहते हैं . जो जीवन में हिंसा(प्राणातिपात) से दूर रहता है, चोरी
(अदत्तादान) नहीं करता, कामभोगों में गलत (व्यभिचार, मिथ्याचार)
नहीं करता, असत्य भाषण (मृषावाद) नहीं बोलता, सूरा, मद्यपान एवं नशीली वस्तुओं का सेवन
नहीं करता,शीलवान की तरह जीवन जीता है और जीवन में शुभ कर्म करने वाला
(कल्याणधर्मकर्ता) है,
दुर्गुण एवं निम्न विचारों से मुक्त चित्त से गृहस्थ धर्म
का पालन करता है, मुक्तहस्त(यथा योग्य) दान देता है, सभी इन्द्रियों पर संयम रखता है, त्याग
को जीवन में उचित महत्त्व देता है, योग में निष्ठावान होकर उसमें स्थिर
रहता है, वह व्यक्ति एक अच्छा मनुष्य बन जाता है । निश्चय ही लोग ऐसे व्यक्ति की
प्रशंसा करते हैं । ऐसे व्यक्ति की देवतागण(विद्वान और श्रेष्ठ लोग) भी सभी दिशाओं
में प्रशंसा करते है । ऐसे व्यक्ति के गुणों की सुगन्ध चारों तरफ फैलती है, लोग
उसका सम्मान करते हैं तथा सर्वत्र उसकी प्रशंसा करते हैं । निश्चित ही शीलगंध एक
ऐसी गन्ध है जो हवा की दिशा में, हवा के विपरीत दिशा में और हवा की
दिशा और विपरीत दोनों दिशाओं में चलती है ।
सार - गुणों की सुगन्ध सभी दिशाओं में जाती है ।
धम्मपद ५५ ।।
चन्दन या तगर, कमल या जूही - इन सभी गन्धों की
तुलना में शील (सदाचार) की सुगन्ध श्रेष्ठ होती है ।
।। पुष्प वर्ग (पुण्य पुष्प का बगीचा उगाएं) - अच्छा मनुष्य(सच्चा
श्रावक या श्राविका),
ब्रह्मवेत्ता ऋषि, अरिहंत, तीर्थंकर, बुद्ध, ताओ
या झेन रहस्य के जानकार आदि अपने कर्मो की गन्ध सभी दिशाओं में फैलता हुआ चलता है
। इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता की 'उसकी सुगन्ध हवा के विपरीत दिशा में
नहीं जा सकती' । इस प्रकार हम पाते हैं की सदाचार मनुष्य की सुगन्ध की कोई समानता
नहीं कर सकते है । यह अनूठी और अद्वितीय है । इसके समान कोई सुगन्ध है ही नहीं ।
धम्मपद ५६ ।।
तगर र चन्दनको सुगन्ध त अलिकति मात्रै फैलिन्छ
। रातरानी भन्ने फुलको सुगन्ध पनि वातावरणमा केहि पर सम्म फैलिन्छ शीलवानहरु(सदाचारी
= सत्य आचरण र जीवन जस्को हो त्यो) को सुगन्ध देवलोक(पुरे विश्वमा)सम्म फैलिन्छ ।
।। पुष्प वर्ग (पुण्य पुष्पको बगैचा फुलाऔं) -
धम्मपद
५७ ।।
शीलवान, अल्छीले मुक्त, ज्ञान द्वारा मुक्त व्यक्तिहरको मार्गलाई 'मार' ले जान्न सक्तैन ।
।। पुष्प वर्ग (पुण्य पुष्पको बगैचा फुलाऔं) -
जो व्यक्ति धैर्यवान, सदाचारी, न्यायप्रिय, ध्यान गर्ने, सत्यवक्ता
र जहाँ सम्म होस प्रिय बोल्ने, सच्चा
अहिंसक, सबै भन्दा प्रीति पूर्वक र यथा
योग्य सबैको भलो चाहने वाला र गर्ने वाला, सोची बुझि निर्णय लिने व्यक्ति, सबूलाई सही कुरा भन्ने र सल्लाह दिने व्यक्ति, कसेको पनि निन्दा नगर्ने व्यक्ति, उत्साही, उद्यमी र ज्ञान द्वारा मुक्त व्यक्तिहरुको मार्गमा हिड्ने
व्यक्तिलाई मार अर्थात खराब, वासना, दुख, क्लेश, खराब
बानी, खराब संस्कार, मनको अशांन्ति आदि ले छुन पनि सक्तैन ।
धम्मपद ५८-५९ ।।
जैसे कूड़ा-कर्कट फेंके गए राजमार्ग पर
सुगन्धित तथा मनभावक कमल का फुल खिल उठे ........
......वैसे ही कूड़ा-कर्कट के सामान अन्धे अज्ञानी
लोगों में सम्यक-सम्बुद्ध का श्रावक अपनी प्रज्ञा से प्रकाशित होता है ।
।। पुष्प वर्ग (पुण्य पुष्प का बगीचा उगाएं) -
मुझे यह बात पूरी तरह समझ में नहीं आई लेकिन
मेने जितना समझा उतना कहने का प्रयास करता हु सायद यह बात बहुत जनों को कड़वी भी
लगे ।
कल से मूर्खो और दुर्जन से केसे बचे वह वर्ग आरम्भ हो रहा है ।
स्पष्टीकरण : जैसे राजमार्ग(Road) के किनारे पर गन्धगी और
कीचड़ के ढेर लगा हो और बहुत बदबू आती हो उसी ढेर में कमल का फूल खिलता है तो पुरे
Road में खुश्बी की महक फेल जाती है,
उसी प्रकार अन्धे और महा अज्ञानी लोगों के समाज के बीच में कोई श्रावक
या व्यक्ति को सम्यक-सम्बुद्धत्व यानि परम ज्ञान और शांति की प्राप्ति हो जाती है
तो पुरे समाज में एक विशेष खुश्बी की महक फेल जाती है और वह प्रकाशित हो जाता है
।
इसलिए कहा जाता है *हमेशा कीचड़ में ही कमल खिलता है*
।। बाल वर्ग (सावधान ! दुर्जनहरबाट बचौं) -
धम्मपद ६० ।।
सार :- जो व्यक्ति आफ्नो धर्म अर्थात् कर्तव्यलाई
जान्दैन र कर्तव्यको पालन गर्दैन उ संसारमा भौंतारि रहन्छ र महा-दुखलाई प्राप्त गर्छ
।
-यसैले आफ्नो सत्य धर्मलाई जान र उत्यस्को पालन
गर ।
-------------------------
धम्मपद ६१ ।।
अगर सन्मार्ग पर चलते समय मनुष्य को अपने समान या अपने से श्रेष्ठ
सहयात्री न मिले तो उसे दृढ़ता के साथ अकेला ही चलाना चाहिए । परन्तु किसी भी
मूल्य पर उसे मुर्ख का साथ नहीं पकड़ना चाहिए, मुर्ख से मित्रता नहीं करनी चाहिए ।
।। बाल वर्ग (सावधान ! दुर्जनों से बचें) -
टिप्पणी : अगर गलती मुर्ख से मित्रता हो भी जाए तो उस परिस्थिति में
यथाशीघ्र, अति सावधानी से उसके संग से निकल आना चाहिए क्योंकि मुर्ख की मित्रता
महंगी और कष्टदायी होती है, उससे वैर भी महँगा पड़ता है ।
'यो छोरा मेरो हो', 'यो धन मेरो हो' - यस्तो सोंचेर मुर्ख व्यक्तिको जीवन
दुखमय हुन्छ । अरे! जब मान्छे स्वयं आफ्नो छैन भने कहाँबाट उस्को छोरा र कहाँबाट
उस्को धन होला ?
।। बाल वर्ग (सावधान ! दुर्जनों से बचें) -
धम्मपद ६२ ।।
हामी
सँधै भ्रममा हुन्छौं कि हामी सँधैको लागि जीवित रहन्छौं । अतः हाम्रो सांसारिक चीजहरुमा
आसक्ति हुन्छ जबकि सत्य यो हो कि जीवन त पानीको फोका जस्तै हो ।यो तुरुन्तै फुट्छ
।
धम्मपद ६३ ।।
केवल यसकारण स्विकार्ने होईन कि यो हाम्रो धर्मग्रन्थ को अनूकूल छ यो
तर्क सम्मत छ ,
मूर्ख जीवन पर्यन्त पनि यदि पण्डित पुरुषको साथ रहे पनि उ धर्म(सत्य)को
विषयमा केहि पनि जान्न सक्दैन जस्तै सूप भित्र भएको चम्मच सूपको स्वादलाई अलिकति
पनि जान्न सक्तैन ।
यदि मुर्ख,
मूर्ख भएर पनि यो मान्दछ की उ मूर्ख छ है त उ पण्डितको नै
समान छ । यसको विपरीत जो छ त मूर्खमा सम्झन्छ आफूलाई विव्दान, उ
वास्तव मै मूर्ख हो ।
।। बाल वर्ग (सावधान ! दुर्जनहरुबाट बच) -
स्पष्टीकरण :- बाजारमा धेरै किसिमका ऐना बिक्रि हुन्छ । सामान्य सतह
वाला ऐना जस्मा अनुहार जस्ताको तस्तै देखिन्छ । अर्को ऐनामा आकृति विकृत देखिन्छ ।
मनुष्य जस्तोछ त्यो भन्दा फरक देखिन्छ। जीवनको ऐनामा, हामी जस्तो
छौं, यदि ठीक त्यस्तै प्रकारको आफूलाई देखिन्छ भने त ठीक छ । तर यदि हामी
जस्तो छैन भने, आफूलाई त्यस्तै ठानेर हिंड्नुहुन्छ भने जीवनमा समस्या उत्पन्न हुन्छ ।
जस्तो बेईमान मान्छे यदि स्विकार गरोस कि उ बेईमान छ त सम्भावना छ कि उ बेईमानीबाट आफूलाई मुक्त गरोस
तर यदि बेईमान भएर पनि उ ईमानदार हुने स्वाङ्ग गर्छ भने भगवानै उस्को मालिक भनेपनि
भयो ।
सार :- मान्छे जस्तोछ यस्लाई स्वयम्लाई उस्तै नै स्विकार गर्नुपर्छ यहि
सबै भन्दा बुद्धिमत्ता हो ।
यो मूर्ख शब्दको साथ पूर्व वाक्य(धम्मपद ६३) को अनुवृत्ति आउंछ ।
।। बाल वर्ग (सावधान ! दुर्जनों बाट बचौं) -
धम्मपद ६४ ।।
यसकारण जो व्यक्तिलाई पंडित भएको भ्रममा छ जो
वास्तवमा मूर्ख छ । त्यो पहिलो पंडित व्यक्तिलाई हेर्न सक्तैन त्यसैले जीवन
पर्यन्त मूर्ख हुन्छ र यदि त्यो देखावटीको लागि पण्डित सित बस्छ तैपनि त्यो मनबाट
अहंकारले र अज्ञानले भरीएको हुन्छ तैपनि उसलाई धर्म-ज्ञान अथवा सत्यको ज्ञान हुंदैन ।
जस्तै चन्दनको रुखमा बेरीएको साँप सदैव चन्दनबाट
बेरीएररहन्छ तर उस्मा चन्दनको सुगन्ध हुंदैन र त्यसमा शीतलता पनि हुंदैन साथमा
साँप आफ्नो विषलाई संगालेर राख्ने स्वभाव पनि त्याग्दैन ।
सार - सद्पुरुषहरुको साथ लाभ उठाउनको लागि
परिश्रम गर्नुपर्छ ।
धम्मपद ६५ ।।
यदि जान्ने व्यक्ति कुनै पण्डितको साथ क्षण भरी पनि रह्यो भने त्यो
ज्ञानलाई तत्काल त्यसै प्रकार जान्दछ जस्तै जिभ्रोले सूपको स्वादलाई तुरन्त
थाहापाउंछ ।
।। बाल वर्ग (सावधान ! दुर्जनबाट बचौं) -
ज्ञानी धर्म(सत्य र कर्तव्य)को सार तुरन्त बुझ्दछ ।
धम्मपद ६६ ।।
दुष्ट बुद्धि भएका व्यक्ति स्वयं नै आफ्नो शत्रु हों । ति आफ्नै शत्रु बनेर घुमिरहन्छ र पापमय कर्म गरिरहन्छ । ति
पापमय कर्महरुको तीतो फल पाउने सुनिश्चित छ ।
।। बाल वर्ग (सावधान ! दुर्जनबाट बचौं) -
- धम्मपद ६७ ।।
त्यस कर्मलाई गर्नु ठीक होईन जसलाई गरेर पछुताउनु परोस र जस्को फल रुदै
भोग्नुपरोस ।
।। बाल वर्ग (सावधान ! दुर्जनहरुबाट बचौं)
बेहोशी(अज्ञानता) मा गरिएको काम अन्तमा दुख दिन्छ र पछि जीवन भरी
रुनुपर्छ ।
मेरो दृष्टिमा बेहोशी नै अधर्म र पापको मूल हो ।
धम्मपद ६८ ।।
कर्म त्यहि शुभ हुन्छ जस्लाई गरेपछि पछुताउनु नपरोस बरु जस्को फल यस्तो
होस की हामी त्यसलाई प्रसन्नचित्त भएर भोग्न सकीयोस ।
।। बाल वर्ग (सावधान ! दुर्जनहरुबाट बचौं) -
जीवनमा जेपनि कर्म गर सोंची बुझि होसपुर्वक गर. ट्ट्यो रूचिकर शुभ कर्म
गर जो मन र आत्मालाई प्रसन्नचित्त गर्स र जीवनमा
पछुताउनु नपरोस ।
जीवनमा शांति, प्रेम तथा आनन्दको वृद्धि गरोस ।
धम्मपद ६९ ।।
जब सम्म पापको फल पाईंदैन तब सम्म मुर्ख त्यसलाई महको समान गुलीयो
मान्छ तर जब उस्लाई पापको फल पाउंछ तब उस्लाई कठोर दुःखको सामना गर्नुपर्छ ।
यदि कोहि मुर्ख व्यक्ति महीना-महीनाको
अन्तरालमा केवल कुशको टुप्पाले भोजन गरे पनि उ धर्मको जानकारहरुको सोह्रौं भागको
पनि बराबरी गर्न सक्दैन ।
।। बाल वर्ग (सावधान ! दुर्जनहरुबाट बचौं) -
धम्मपद ७० ।।
यस वाक्यको साथ धम्मपदको सुन्दर गाथा पनि छ
त्यो त्यहँ पढ़न सकिन्छ ।
यह वाक्य आज समाज के महत्व पूर्ण बिन्दु पर बात
कर रहा है आज भारतीय समाज में जो अन्धी मानसिकता है, उनमे से एक बिन्दु पर चिन्ह लगता है ।
वह धर्म(सत्य) को जानता भी नहीं है लेकिन केवल
दिखावे के लिए तपस्या और समाज सेवा आदि का पाखंड करता है और उस के बड़े बड़े आश्रम
बनते है और या लोग उनकी भगवान बनाकर पूजा करते है, भी क्या होता है वह आप जानते है वह समाज का शारीरिक, मानसिक, आत्मिक शोषण करता है फिर भी समाज की आंखे नहीं खुलती है ।
इसलिए धम्मपद चीख चीख कर कह रहा है की मुर्ख, महा मुर्ख, दुष्ट प्रकृत के व्यक्ति आदि कितना भी दिखावे के लिए तपस्या, प्रवचन, आश्रम और लाखो लोग उनकी पूजा आदि कर ले तो भी वह धर्म(परम
सत्य) का सोलहवें भाग का भी ज्ञान नहीं होता है और वह खुद नरक में जाता है और उनके
चेले, भक्त आदि को भी लेकर जाता है ।
उदहारण देने की जरूत नहीं है आप अपने आप को या
अपने आसपास के व्यक्ति को देखा लेवे सत्य स्वयं सिद्ध है
तिमीले कुनै कुरालाई केवल यसकारण स्विकार नगर कि यो अनुश्रुत हो,
जस्तै फूल सुन्दर होस,तर त्यो सुगन्ध रहित होस त्यसै
प्रकार भनिएको अनुसार कार्य नगर्नेको सुभाषित वाणी निष्फल हुन्छ ।
।। पुष्प वर्ग (पुण्य पुष्पको बगैचा फुलाऔं) -
यहाँ भनाईले भन्छ कि हामी राम्रो बोल्छौं तर हाम्रो जीवनमा हामी जे बोल्छौं
त्यस्को आचरण छैन भने हामीले बोलेको अनर्थ छ र उत्यसको कुनै परिणाम आउँदैन र त्यो
शब्द व्यर्थ हो ।
(मेरी निजी राय किसकी पर कटाक्ष नहीं है - इसलिए
हम भारतीय या धर्म(संप्रदाय) के नाम पर चलने वाले लोगों का जीवन नरक के तुल्य हो
गया है हम बड़ी बड़ी अच्छी बाते करते है लेकिन आचरण में वह पूरी शुद्धता नहीं है
चाहे नेता हो, धर्म-गुरु
हो, माता-पिता हो, शिक्षक हो, समाज सुधारक हो, NGO हो, सरकार
हो, लोग हो, युवा वर्ग हो, चाहे कोई भी हो कही भी जीवन में शांति, सुख और प्रेम नजर में नहीं आ रहा है और भविष्य
में भी दिख नहीं रहा है)
-इसलिए हम जो सुभाषित वाणी बोले उसके अनुसार
कार्य करे और अपने जीवन को और दुसरे के जीवन को सुखी, शांति और प्रेम से युक्त बनाये ।
।। बाल वर्ग (सावधान ! दुर्जनों से बचें) - धम्मपद७०
केवल यस कारण स्विकार नगर्नु कि यो यो अनुमान
सम्मत हो ।
यसकारण स्विकार नगर्नु कि यसको कारणहरुको सावधानी पूर्वक परीक्षा छ ।
यसकारण स्विकार नगर्नु कि यसमा हामीले विचार गरेर अनुमोदन गरेकाछौ ।
यसकारण स्विकार नगर्नु कि भन्ने व्यक्तिको व्यक्तित्व आकर्षक छ ।
यसकारण स्विकार नगर्नु कि भन्ने मान्छे गौतम श्रमण हाम्रो पूज्य हो ।
जब तिमी स्वानुभवले यो जान कि यो कुरा अकुशल हों र यि कुराहरुको हुनाले
अहित हुन्छ , दुख हुन्छ तब तिमी ति कुरालाई उपेक्षा गर !
धम्मपद ७१
जस्तै ताज़ा दूध तुररुन्तै दही जम्दैन , त्यसै प्रकार कृत (गरेको) पाप कर्म पनि तुरुन्तै आफ्नो फल ल्याउंदैन । खरानीले ढाकिएको
आगो जस्तै जल्दै त्यो मूर्खको पछि लाग्छ ।
।। बाल वर्ग (सावधान ! दुर्जनों से बचें) - धम्मपद ७१ ।।
धम्मपद ७२
मूर्खको जति ज्ञान भएपनि त्यस्ले उसको अनिष्ट नै गर्छ । त्यो उस्को
राम्रोलाई समाप्त गरिदिन्छ तथा उसको कुशल कर्महरुको नाश गरिदिन्छ ।
।। बाल वर्ग (सावधान ! दुर्जनहरुबाट बचौं) - धम्मपद ७२ ।।
मूर्खहरुको ज्ञान र कला तिनलाई अहितकर नै गर्छ ।
धम्मपद ७३
मूर्ख व्यक्ति जो छैन उसकलाई चाहना गर्छ,
मनुष्यहरुमा, सन्यासिहरुमा, भिक्षुहरुमा, मुनीहरुमा ७लो बन्न चाहन्छ,
घरमा, समाजमा, देशमा र मंदिर-मठहरुमा-आश्रममा
स्वामी बन्न चाहन्छ र बनेर बस्न चाहन्छ,
अरुको कूलहरुमा आदर-सत्कारको कामना गर्छ ।
'गृहस्थ र प्रव्रजित(मनुष्य, सन्यासि, भिक्षु र मुनि) दुबै मेरो भनेको
मान्छन', 'कृत-अकृतमा ममा नै निर्भर
रहोस'यस्तो यस्को चाहना
हुन्छ । यस प्रकारको संकल्प गर्नाले मूर्ख मान्छेको इच्छाहरु र उसको अभिमान बढ़छ ।
।। बाल वर्ग (सावधान ! दुर्जनों से बचें) - धम्मपद ७४ ।।
मूर्ख मनुष्यको कुनै कुरा मान्छ या त्यो शक्तिको दूरुपयोग गरेर मनाउन
लगाउंछ । तब उस्ले ठान्छ की पूरा समाज र राष्ट्र उसको गुलाम हो र धेरै आफ्नो मूर्खताको प्रदर्शन गर्छ र समाज र राष्ट्रको
शोषण गर्छ अनि देश र समाज लाई आफ्नो अभिमानको अगाडी केहि होईन भन्ने भ्रममा हुन्छ र
गलत बाटोमा लैजान्छ ।
सांसारिक लाभ-सत्कार प्राप्त गर्ने मार्ग अर्कोछ र निर्वाण, मुक्ति , केवली, परम सत्य र परम शांन्तिको तर्फ लैजाने बाटो अर्को । यस
प्रकार यसलाई राम्ररी जानेर बुद्धहरु र तीर्थंकरहरु (र अष्टांग-योग) अनुगामी
शिष्य-शिष्या, साधक-साधिका, श्रावक-श्राविका या मनुष्य सांसारिक
आदर-सत्कारको इच्छा नगर र विवेक-ख्यातिलाई बढ़ावा देवस र प्राप्त गर।
।। बाल वर्ग (सावधान ! दुर्जनों से बचें) -
धम्मपद ७५ ।।
यह वाक्य धम्मपद ग्रन्थ के बाल वर्ग का सार है
।
यह बहुत सरल वाक्य है आप सरलता से समझ सकते है जीवन
के दो मार्ग है आप किसी को भी चुन सकते है ।
क्यों की चुनाव करना आप का अधिकार है और जो आप
मार्ग को पसंद करेंगे तो फल भी उसकी के अनुसार मिलेगा वह आप के अधिकार में नहीं है
वह निश्चित है ।
इसलिए हर कार्य सोच-समझ कर करिए और बुद्धों, तीर्थंकर, ब्रह्म ऋषि, परम ज्ञानी, झेन गुरु के मार्ग को समझिये और
यथा सामर्थ्य चलने का प्रयास करे और सदा सुखी और शांति से जीवन जिए ।
-----------------
धम्मपद ७६ ।।
यहाँ पर धम्मपद का बाल वर्ग (सावधान ! दुर्जनों
से बचें) समाप्त हो गया और भविष्य में धम्मपद का पंडित वर्ग (सच्चा पंडित कौन ?) शरुवात होगी ।
जो व्यक्ति आफ्नो दोष देखाउनेलाई भुईंमा गाड़ेको धन देखाउने जस्तै सम्झौं, जो संयम सित रहने मेधावी पण्डितको
साथ गर्छ(संग गर र साथ देउ) त्यस्तै व्यक्तिको सदा राम्रो (कल्याण)नै हुन्छ,खराब (अकल्याण) होईन ।
।। पंडित वर्ग (साँचो पंडित को ?) -
धम्मपद ७७ ।।
जो (सत्य) उपदेश दिन्छ, (बुद्धि र समझदारी सित) अनुशासित गर्छ र गलत कर्मलाई गर्न रोक्छ त्यो
सज्जहरुलाई प्रिय हुन्छ र दुर्जनहरुलाई अप्रिय हुन्छ ।
।। पण्डित वर्ग (सच्चा पण्डित को ?) -
धम्मपद ७८ ।।
न दुष्ट मित्रहरुको संगति गरौं र न अधम पुरुषहरुको
संगति गरौं असल मित्रहरुको, उत्तम पुरुषहरुको ।
।। पंडित वर्ग (सच्चा पंडित कोन ?) -
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